२०१४ से २०२४ : लोकतंत्र की असली मजबूती के १० वर्ष

आज कल कुछ लोग ये बोलते हुए पाए जाते है की आज लोकतंत्र खतरे में है।  उनके लिए मैं कुछ कहना चाहता हूँ।  मुझे क्यों ऐसा लगता है की २०१४ के बाद लोकतंत्र को और मजबूत किया गया है।  मैं एक आम नागरिक की नजर से इस बात की विवेचना करना चाहता हूँ। 

सबसे पहले आपको मैं पुराने दिनों में ले जाना चाहता हूँ।  मैं रायबरेली का रहने वाला हूँ।  वही रायबरेली जिसको तो कुछ लोगो के हिसाब से लंदन होना चाहिए था।  उसी रायबरेली में पले बढे एक बचपन से शुरुआत करना चाहता हूँ। किताबें विद्यार्थी जीवन की सबसे बड़ी मित्र होती हैं। और उन्ही मित्रो के जरिये उस समय एक विद्यार्थी  प्रजातंत्र की परिभाषा याद कर रहा था। 

“प्रजातंत्र जनता के लिए जनता के द्वारा शासन है “। 

इसी प्रजातंत्र के परिवार से एक विद्यार्थी घर से ६ ७ किलोमीटर दूर विद्यालय से कंकड़ों वाली सड़क से वापस आते समय दिमाग में ये सोच रहा होता की ये जनता का कैसा साशन है की उसको रोज इतनी मेहनत करवाती है। क्या वह जनता नहीं है।  खैर इन सवालों के जवाब न तो वो किताबे दे पाती और न ही वो प्रजातंत्र की परिभाषा।  उस समय तो प्रजातंत्र का मतलब उस बच्चे को बस किताब में लिखे उस छोटा सा गद्य खंड ही था।

बचपन अब बड़ा होता है और अब उसने जनता को या तो लम्बी कतारों में पाया या फिर सरकारी कार्यलयों के परिधि के बाहर चक्कर लगाते हुए।बैंक में छोटे से छोटे  काम के लिए कतार।  किसानो को खाद के लिए कतार।  ट्रैन में बैठने के लिए कतार। अस्पतालों के लिए कतार।  गैस सिलिंडर के लिए तो इतनी बड़ी बड़ी कतारें लगती थी की कुछ  लोग तो पहले से ही हिम्मत हार जाते थे।

एक आम इंसान को सरकारी कार्यलयों में जाने का मन नहीं करता था।  किसी भी सरकारी अधिकारी से बात करते वक़्त वो जनता हाँथ बांधे खड़ी होती थी।  अधिकारी ऐसे बाते सुनता था जैसे उसके सामने खड़ी वो जनता है ही नहीं या  जनता को तुच्छ समझ कर वो उनकी बाते सुनते थे।  बेचारी हाँथ जोड़े खड़ी जनता उसको ये पता ही नहीं था की किताबों में तो प्रजातंत्र कुछः और ही बताया गया है।

२०१४ में श्री नरेंद्र मोदी जी के आने के बाद मैंने प्रजातंत्र में जो बदलाव देखे है उससे मेरी प्रजातंत्र को लेकर धारणा बदल गयी।

अब हम प्रजातंत्र को जनता के लिए साशन बनाने की दिशा में बढ़ चुके है।  मैं आपसे कुछ उदाहरण ही साझा करूँगा।

बात २०१३-१४ की है मैं पहली  बार मैं गरीब रथ में बैठा।  मैं AC ट्रैन में पहली बार बैठा था तो मुझे इस बात का पता नहीं था की कम्बल लेने के लिए आपको पैसे देने पड़ेंगे।  सब लोग डिब्बे के बाहरी हिस्से में जाकर कम्बल लेकर आ रहे थे तो मैं भी चला गया।  कम्बल बाटने वाले कर्मचारी ने पहले तो सुनाया मुझे की घर से क्यों नहीं लाये फिर बोला की अब कम्बल ख़तम हो गए।  खैर कुछ पैसे लेने के बाद उसने कम्बल दे दिया। 

अब हम सीधा २०२२ में आते हैं।  मैं और मेरी पत्नी सहारनपुर जाने के लिए रायबरेली से रिजर्वेशन करवाया।  अब हम लोगो को बछरावां स्टेशन नजदीक पड़ता तो ये तय किया की रायबरेली के एक स्टेशन आगे से ट्रैन पकड़ लेंगे।  बछरावां  स्टेशन में वातानुकूलित डिब्बों के सारे गेट बंद थे।  क्यूंकि शायद वह से कोई रिजर्वेशन न रहा हो।  हम लोग स्लीपर वाले डिब्बे में चढ़ गए। ट्रैन के टॉयलेट के पास खड़े हम दोनों। समझ नहीं आ रहा था की क्या करें।  एक ट्वीट किया मैंने भारतीय रेलवे और रेल मंत्री को टैग करते हुए।   आप यकीन मानिये २ मिनट के भीतर ही ट्रैन के टीटी साहब हम लोगों के सामने आये।  और हमारी सीट तक छोड़ कर आये।  ३ बार रेलवे की तरफ से कॉल आया की आपकी समस्या का निर्धारण हुआ की नहीं।  आप यकीन मानिये उस समय मेरा विस्वास सरकार पर और सरकारी तंत्र पर बढ़ गया या यूँ कह ले की जनता के लिए शासन होते हुए मैं असलियत में देख रहा था।  मेरे बस ये बोलने पे की सीट पर रखे हुए चद्दर  गंदे लग रहे बिना किसी बहस के नया पैकेट आ जाता है तो ये जनता के लिए साशन है।  शायद लोकतंत्र मजबूत हुआ है पहले की अपेछा। 

दूसरा उदाहरण पासपोर्ट सेवा।  २०१४ से पहले की बात करें तो असंभव सा लगता थ।  मेरे जान पहचान के मित्र है उनको दफ्तर की तरफ से विदेश जाना था। बड़ा मौका था पर पासपोर्ट नहीं था।  और हम लोग तो पहले वाली व्यवस्था ही समझ रहे थे  की अब तो महीनो  लगेंगे। पर फिर से एक ट्वीट आदरणीय सुषमा स्वराज जी और विदेश मंत्रालय।  एक हफ्ते के अंदर पासपोर्ट आ गया।  क्या ये जनता के लिए शासन नहीं है। क्या इसे लोकतंत्र को मजबूत करना नहीं कहते।

जनता को ये विस्वास होना की उसके एक ट्वीट से पूरा मंत्रालय उसके काम में लग जाता है तो इसे आप लोकतंत्र की मजबूती कहेंगे न की खतरा।  विदेश में कही कोई फस जाता था तो बस एक ट्वीट और सरकार सुरक्षित वापस ले आती है क्या ये लोकतंत्र की मजबूती नहीं है।

मीलों दूर विदेश में फसे भारतीय को अगर ये विस्वास हो की भारत की सरकार उसके साथ खड़ी है तो ये लोकतंत्र को मजबूत बनाती है।

अगला उदहारण  गैस सिलिंडर।  मुझे याद है की गैस सिलिंडर लाने के लिए गैस स्टेशन पे लम्बी लाइन।  २ ३ लग जाते थे कभी कभी।  एक इंसान १० १५ किलोमीटर साइकिल चलकर सिलिंडर लेने जाता है और फिर लम्बी कतार में खड़ा होकर वापस आ जाता है की गैस ख़तम हो गयी।  गरीब इंसान सरकारी शरारत का शिकार बन जाता था।  अब जरा अभी का हाल देखिये आपको मात्र मोबाइल पे मिस्ड कॉल देना है गैस आपके घर में।  अब लम्बी कतार नहीं लगती।  लोकतंत्र को धुप में लम्बी कतारों में खड़ा होकर सुखना नहीं पड़ता।  जब मात्र एक मिस्ड कॉल पे गैस आप के घर पहुंच जाती हो तो इसे आप लोक तंत्र को मजबूत होना ही कहेंगे।

मनरेगा में अपनी की हुई मजदूरी के पैसे पाने के लिए पहले गांव के गरीबों को ग्राम प्रधानों के घर के चक्कर लगाने पड़ते थे। और वह भी उसमे से कुछ हिस्सा ग्राम प्रधान रखते थे। आज अगर किसान सम्मान निधि सीधे किसानो के खाते में जाती है। सब्सिडी सीधे उपभोक्ता के खाते में जाती है। आयुष्मान भारत इतनी बड़ी स्वास्थ योजना। ये सारे कदम लोकतंत्र को मजबूत नहीं करते तो क्या करते है। क्या लोकतंत्र तब मजबूत था जब किसान खाद और बीज के पैसो के लिए दर दर भटकते थे। आज अगर उनको किसान सम्मान निधि मिलती है तो की ये लोकतंत्र की मजबूती नहीं है।

मुझे याद है मैं एक बार SBI की एक साखा में गया था यही कोई २०१० -११ में।  केवल ATM कार्ड का आवेदन के लिए मुझे ३ ४ घंटे लगे।  मन उठने लगता था सरकारी तंत्र से।  फिर अभी २०२४ में मैं फिर से हिम्मत करके SBI  की उसी शाखा में गया।। क्यूंकि २०१०-११ के बाद मैं वहा गया ही नहीं था।  मैंने न तो इस बार लम्बी कतारें देखि और न बैंक कर्मचारियों की ग्राहकों के प्रति उदासीनता।  सम्मान से बात करना।  जल्दी जल्दी काम करना। 

इस सरकार ने डिजिटल को ज्यादा बढ़ावा दिया।  न सिर्फ बढ़ावा अपितु उसके के लिए आवश्यक तंत्र भी विकसित किया जिससे आम जनता को बहुत ज्यादा सहूलियत मिली।  मुझे याद नहीं की मैं कब एटीएम की लाइन में लगा हूँ।  सब्जी वाले के तराजू के पीछे हिस्से में चिपक QR कोड इस बात का सूचक है की लोकतंत्र मजबूत हो रहा है।  सरकारी योजनाओं के नाम अब गांव में सिर्फ दीवालों में नहीं लिखे जाते अपितु उनको असली जामा पहना कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाया जाता है।

ऑनलाइन बैंकिंग को बढ़ावा , और बहुत सारी सरकारी प्रक्रिया को ऑनलाइन कर देना इससे आम जनता को मिलने वाली सहूलियत क्या लोकतंत्र को मजबूत नहीं बनती। घर बैठे लाखों रुपये का लेन दे। सरकार को डिजिटल को बढ़ावा इसपे अलग से लिख सकते है।

पहले ट्रेनों को क्या जान बूझ कर गन्दा रखा जाता था।  जो बदलाव मैंने भारतीय रेल में देखा वह अकल्पनीय है। 

सरकारी अधिकारी से बात करते हुए अब विस्वास रहता है।  अधिकारयों के मन में भी ये भय तो रहता है की अगर किसी ने ट्वीट कर दिया या फिर वीडियो बना के वायरल कर दिया तो उसे जवाब देना पड़ेगा।  मैंने अनगिनत स्ट्रीट लाइटस को ऐसे ठीक होते देखा है।  फोटो खींच कर ट्वीट कर  दिया और अगले दिन कर्मचारी मैदान में दीखते थे।  इसे आप एक क्रान्ति कह सकते है।  लोकतंत्र की क्रान्ति। 

अब जनता की आवाज को आप दबा नहीं सकते।  मौजूदा सरकार ने बहुत सारे प्लेटफार्म दिए है अपनी आवाज सीधा सरकार तक पहुचनाने को।इससे लोकतंत्र की मजबूती बढ़ती है।  वो जनता जो पिछली सरकारों में अपनी आवाज में बस प्रार्थना ही कर पाते थे आज वह मुखर होकर अपनी आवाज रख रही है।  हाँ अब अगर इसको आप कहेंगे की काम करना पड़ रहा है तो जनता के काम तो आपको करने पड़ेंगे। 

आज प्रधानमन्त्री किसी के ट्वीट का जवाब देते है या किसी को चिट्ठी लिखते है तो ये अनुभव होता है की ये सरकार हमारे लिए है

ऐसे बहुत से उदाहरण मैं गिनवा सकता हु।  बदलाव तो हुआ है इस देश में पर वो संविधान बदलने को नहीं अपितु  उसको और मजबूत करने के लिए। 

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समान नागरिक संहिता : भारत सरकार पर भारतीय लोकतंत्र का एक उधार

आजादी के बाद नेहरू सरकार भारतीय समाज में कई आमूलचूल परिवर्तन लाना चाहती थी। इसके लिए कई सारे सामाजिक सुधारों को संविधान का रूप देना चाहती थी। इन्ही में से एक सुधार था हिंदू कोड बिल। ये बिल अपने आप में कई कानूनों को समेटे हुए था। और इसमें एक था हिन्दू विवाह अधिनियम। हिन्दू समाज में शादी को लेकर संविधान में कुछ नियम जोड़े गए। उस समय के परिदृश्य को देखते हुए शायद ये जरूरी कदम था। 

https://www.amarujala.com/columns/blog/hindu-code-bill-dr-babasaheb-ambedkar-significance-importance-nehru-and-the-hindu-code-bill

पर एक सवाल तो उस समय यह भी खड़ा हुआ की ये सारे कानून सिर्फ एक वर्ग के लोगों के लिए ही क्यूं। क्या ये नियम समाज के हर वर्ग के लोगों के लिए नहीं होना चाहिए। क्या उस समय की नेहरू सरकार मुस्लिमों को इस कानून के अंतर्गत लाने में डर या हिचकिचा रही थी। क्या उनको लग रहा था की हिन्दू समाज परिवर्तन आसानी से स्वीकार कर लेता है।

ये सोच कर ही कितना हास्यास्पद लगता है की एक देश में दो वर्गों के लिए दो कानून। एक वर्ग के लिए कानून संविधान निर्धारित करे और एक वर्ग के लिए पर्सनल लॉ बोर्ड। 

खैर अभी बात विवाह कानूनों की चल रही है तो एक और उदाहरण आपके सामने रखते हैं। 1985 में न्यायालय द्वारा एक ऐतिहासिक फैसला आया जिसने भारत की राजनैतिक दिशा को बदल के रख दिया। 1978 में मध्यप्रदेश इंदौर की रहने वाली शाह बानो बेगम को उनके पति ने तलाक दे दिया। शाह बानो ने न्यायालय में अपने गुजारा भत्ता देने के लिए अर्जी लगाई। आज ये पढ़ कर अचरज हो रहा होगा की गुजारा भत्ता के लिए न्यायालय तक क्यों जाना पड़ा। पर इस्लाम में हर महीने गुजारा राशि देने का कोई प्रावधान नहीं है। विवाह के समय तय मेहर की रकम को ही गुजारा राशि माना जाता है। 

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न्यायालय ने शाह बानो के पति को हर महीने 500 रुपए देने का आदेश दिया।

सिर्फ मेहर की राशि चुकाने से पति का दायितव ख़तम नहीं होती।  पर इस फैसले मुसलिम धर्म गुरुओं और संस्थाओं  ने फैसले का विरोध किया। 

जरा सोचिये शाह बानो जो की ६२ साल की महिला और ५ बच्चो की माँ है उनको पति ने घर से निकाल दिया और गजरा भत्ता की मांग पर तलाक दे दिया।  ५ बच्चों के साथ शाह बानो अपना पालन पोषण करने के लिए दर दर भटकने को मजबूर थी।  लिहाजा उन्होंने न्यायालय का दरवाजा खटखटया।  उन्होने इन्साफ तो मिला पर उसकी अवधि बहुत ही कम थी। 

सोचिये स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी की सरकार के समय हिन्दू विवाह अधिनियम  की जगह सिर्फ विवाह अधिनियम कानून आता तो क्या शाह बानो के जैसी हजारों या शायद लाखों  महिलाओं के साथ ऐसा न हुआ होता।  उन्हें गुजारा भत्ता के लिए दर दर की ठोकरे ना खानी पड़ती।  पर बार अभी १९८६ राजीव गाँधी सरकार की हो रही है।  इंदिरा गाँधी जी के हत्या के बाद प्रधानमन्त्री बने श्री राजीव गाँधी की ये पहली अग्नि परीक्षा थी।  ये देखना था की क्या वो मुस्लिम समाज के विरोध को दरकिनार कर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के साथ खड़े रहेंगे।  क्या राजीव गाँधी १९५२ में महिलाओं का जो वर्ग न्याय से वंचित रह गया था उसको न्याय देंगे। 

पर ऐसा हुआ नहीं सरकार झुक गई।  शरीयत को संविधान से ऊपर मानने वाले कट्टरपन्थीओं की आवाज तले डाब गई।  वो राजीव गाँधी जो भारत के सबसे कम उम्र के युवा प्रधानमंत्री थे जिनसे नए भारत की उम्मीदें थी , जिहोने कंप्यूटर क्रान्ति और भ्रस्टाचार ख़तम करने की बात कही थी , समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलने की बात कही थी वो उम्मीदों को गहरा झटका लगा।  सरकार ने कानून लाकर न्यायलय के निर्णय को बदल दिया। 

शाह बानो फिर से असहाय हो गई। इस्लामिक कट्टरट्ता के आगे शाह बनो जैसी लाखों महिलाओं की आवाज दबा दी गई।  क्या आज के भारत में अलग कानूनों की कोई जगह है।  भारत विविधतता में एकता वाला राष्ट्र है।  पर ये एकता किस कीमत पर। क्या सच्चे मायने में एकता को बनाये रखने के लिए सामनां नागरिक संहिता की आवश्यकता नहीं है।  जिस राष्ट्र में विविध धर्मों और सम्प्रदायों के नागरिक रहते हो उस राष्ट्र में टकराव होना स्वाभवविक है।  पर इन टकरावों सुलझाने के लिए किसी ऐसे नियम नहीं होने चहिये जो सभी वर्गों से ऊपर हो।  और जिसका पालन हर वर्ग के लोग करे। 

आज के इस समाज में कट्ट्टरट्ता की कोई जगह नहीं है।  विकास की इस दौड़ में बने रहने के लिए अपने अंदर थोड़े से लचीलेपन की गुंजाईश रखनी चहिये क्यूंकि परिवर्तन विकसित समाज की बहुत बड़ी जरुरत है।  बदलते समय के साथ समाज में व्याप्त कुछ कुरीतियों को ख़तम करते रहना चाहिए।  मानवीय सिंद्धान्तो में बदलाव भी जरुरी हो जाता है।

हिन्दू धरम में व्याप्त कुरीतियों को समय समय पर ख़तम किया गया है।  फिर वो चाहे अंग्रेजो के द्वारा कानून हो या भारत सरकार द्वारा लाए गए सुधारों को।  सती प्रथा , बलि प्रथा , विधवा विवाह नियम या फिर चाहे पर्दा प्रथा।  हिन्दू समाज ने इन बदलाओं को स्वीकार किया।

पर जैसे किसी कार को सड़क पर सफलता पूर्वक दौड़ते रहने के लिए उसके चारों पहियों का स्वस्थ होना आवश्यक है वैसे समाज रुपी कार को दौड़ते रहने के लिए उसके सभी पहियों का स्वस्थ व सही स्थिति में होना अति आवशयक है।  अगर किसी एक पहिये को नया कर देने पे कार सफलता पूर्वक नहीं दौड़ेगी।

समान नागरिक सहिंता एक ऐसा जरिया जिसके द्वारा समाज के हर पहिये को स्वस्थ व नया रख सकते है जिससे समाज बिना किसी दुर्घटना के आगे बढ़ता रहे।  हम इक्कीसवीं सदी में बाबा आदम के जमाने के नियमों को साथ लेकर नहीं चल सकते।  उन्हें तो बदलना ही चाहिए।

और एक ऐसे नियम प्रणाली की जरुरत है जो आज के हिसाब से हो।  एक ऐसी प्रणाली जिसमे महिलाओं का सम्मान हो , जिसमे हर वर्ग का ध्यान हो।  हम आपसे में टकराहट को रोके और समान नागरिक संहिता को सफल बनाये। 

बाबा साहेब अंबेडकर और नेहरू जी समान नागरिक सहिंता के पक्ष में थे। पर वो धीरे धीरे इसकी तरफ अग्रसर होना चाहते थे। हिन्दू कोड बिल समान नागरिक सहिंता की तरफ पहला कदम था। वो शायद समाज को इसके फायदे दिखाना चाह रहे होंगे जिनके आधार पर अन्य वर्गों को भी इन कानूनों के लिए राजी कर सके। तो एक तरह से आने वाली सरकारों की ये नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है की जो सपना नेहरू जी और अंबेडकर जी ने देखा था उसको पूरा करें।

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वीर सावरकर और उनकी महान विरासत

विनायक दामोदर सावरकर “वीर सावरकर”, भारतीय इतिहास और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी एक ऐसी शक्सियत जिन्हे कुछ लोग नायक मानते है तो वही कुछ वर्ग ऐसा भी है जिन्हे वीर सावरकर से कुछ आपत्ति है। पर आप चाहे उनको माने या न माने पर उनका जो प्रभाव भारतीय इतिहास में है उसको तो सबको मानना ही पड़ेगा। 


इससे पहले की हम भारतीय इतिहास में उनके योगदान के बारे में बात करे सबसे पहले उनके बारे में थोड़ा जान लेते हैं।
१८८३ को नासिक के एक गांव में भगुर में जन्म हुआ महान क्रांतिकारी श्री वीर सावरकर का। एक सामान्य परिवार में जन्मे सावरकर बचपन से पढ़ने लिखने के साथ कविताएं लिखते थे।


१९०२ में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और पुणे के फर्गुसन कॉलेज में बी ए में दाखिला लिया। वीर सावरकर ने क्रांतिकारी गतिविधियां उस समय से आरंभ किया जिस समय न तो महत्मा गांधी भारत में थे और न ही सुभाष चंद्र बोस की इतनी बात होती थी। 
१९०५ में उन्होंने बंगाल विभाजन के विरोध स्वरूप अपने ही कॉलेज में विदेशी कपड़ों की होली जलाई। जिसके बाद उन्हें निष्कासित कर दिया गया और उस समय में १० रुपए का जुर्माना लगाया गया। और कई पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे।


सावरकर एक महान समाज सुधारक थे। सावरकर बाबा साहेब और गांधी जी से पहले छुआ छूत के खिलाफ आंदोलन चलाया।उन्होंने हिंदू समाज को जिन ७ बंदियो ने घेरा हुआ है छुआछूत उनमें से एक है।


सावरकर और अंग्रेजी हुकूमत

सावरकर को अंग्रेज शासन अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता था।कारण भी साफ था। १८५७ की क्रांति के बाद अंग्रजों ने कांग्रेस की स्थापना इस उद्देश्य से किया की वो पुनः ऐसी कोई क्रांति को शुरू होने से पहले ही मिटा दे। उन्होंने कांग्रेस के बहाने भारतीयों के अंतरमन को टटोलना प्रारंभ किया। और अंग्रेजी हुकूमत और जनता के बीच सीधा संवाद के लिए कांग्रेस का इस्तेमाल किया।पर सावरकर अंग्रजों के इस मकसत से पूर्णतया अवगत थे।

उन्होंने १८५७ की क्रांति जिसको धीरे धीरे एक छुटपुट सैनिक विद्रोह बताया जाने लगा था उसको उन्होंने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी। १९०७ में वीर सावरकर ने लंदन स्थित इंडिया हाउस में १८५७ की क्रांति के पचास वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में एक आयोजन किया। और इस मौके को भारतीय जन मानस तक पहुंचाया। उन्होंने १८५७ पे एक किताब भी लिखी। उन्होंने भारतीय जन मानस में फिर से देश प्रेम की भावना जगाई।


सावरकर और सेल्यूलर जेल

सावरकर को १९११ में अंडमान स्थित सेल्यूलर जेल भेज दिया गया। वह किसी नरक से कम नहीं थी। उस समय जब नेहरू जी और गांधी जी जैसे क्रांतिकारियों अंग्रेजों द्वारा जेल में विशेष सुविधाएं दी जाती थी। उनसे उनका मन पसंद खाना दिया जाता। बाहरी दुनिया से संपर्क के सारे साधन दिए जाते थे।तब सिर्फ सावरकर को उस नरक जैसी जेल में रखा गया। जाहिर सी बात है ब्रिटिश सरकार सावरकर को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानती थी। 


उस जेल में छोटे छोटे कमरों में कैदियों को रखा जाता था। पैरो में बेड़ियां पड़ी होती थी। तरह तरह की यातनाएं दी जाती थी।एक निश्चित समय में १३.५ किलो सरसो और नारियल से तेल निकालना पड़ता था। और अगर वो समय सीमा पूरी न हो तो कोड़ों से मारा जाता था। जेल में भेदभाव होता था। खाने के बर्तन साफ नहीं होते थे। आधा पेट खाना मिलता था और थोड़ा पानी। और ये रोज होता था। सावरकर ने ये सब लगभग १० साल तक सहा। पर उन्होंने हिम्मत नही हारी। दिनभर यातनाएं सहने के बाद शाम में वो जेल की दीवारों में पत्थरों से कविताएं लिखा करते थे।


सावरकर और दया अर्जी

सबसे पहले तो ये कोई दया की याचना नही थी। आज कुछ लोग इसको ऐसे वर्णित करते है जैसे सावरकर जी दया की भीख मांगी हो। समय समय पे अंग्रेजी सरकार जेलों में बंद कैदियों को मुक्त करने के लिए दया याचिका का प्रावधान करती थी। यह पूरी तरह से कानूनी प्रक्रिया होती थी। इस दया याचिका का एक निश्चित प्रारूप होता था।

आज कुछ लोगों को इसकी भाषा से समस्या है की उन्होंने तो दया की भीख मांगी थी। पर अगर आप किसी सरकार या कोर्ट से दया की याचिका करते है तो आपको वैसी ही भाषा का चुनाव करना होता है। आज भी हम कोर्ट में माई लॉर्ड या योर लॉर्डशिप जैसे शब्दों का चुनाव करते है। और आपको उस वक्त की मौजूदा सरकार को यह भरोसा दिलाना होता था की आप भविष्य में ऐसी गतिविधियों में सम्मलित नही होंगे।


सावरकर पहले व्यक्ति नही है जिन्होंने ऐसा किया। जब नेहरू जी को नाभा जेल में बंद किया गया तो उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने गवर्नर को दया याचिका लिखी की उनका पुत्र भविष्य में ऐसा काम नही करेगा और वह पुनः नाभा की सीमा में प्रवेश तक नही करेगा। 
सी पी आई पार्टी के संस्थापक श्रीपद अमृत डांगे भी उस से सेल्यूलर जेल में यातनाएं सह रहे थे। उन्होंने भी गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया को दया याचिका लिखी और उसमे योर ओबिडिएंट सर्वेंट इन जैसे शब्दों का चुनाव किया। 


तो इसका मतलब यह नहीं जिन लोगो ने दया याचिका डाली वह सब अंग्रजों के गुलाम हो गए। वह सिर्फ एक जरिया था वहा से बाहर निकलने का। क्यूंकि जेल में बंद होकर अपना जीवन नष्ट करने से कहीं बेहतर है की जेल से बाहर आकर देश के लिए कुछ किया जाए। 


सावरकर को जेल में उनके साथी बड़ा बाबू कहते थे। क्योंकि वे लंदन से पढ़ के आए थे और काफी पढ़े लिखे और समझदार थे।उन्होंने केवल अपने लिए ही याचिका दायर नही की अपितु अपने साथ सब के लिए किया। वह उन लोगों की आवाज थे और उन लोगों को जेल से मुक्त करने के लिए कार्यरत थे।


एक याचिका में उन्होंने यह भी कहा है की आप मुझे न सही पर मेरे साथियों को मुक्त कर दीजिए मुझे उतनी ही खुशी होगी। और हर बार उनको और उनके भाई को रिहा नही किया जाता था।


रिहाई के बाद सावरकर

कई वामपंथी इतिहासकार ये कहते है की जेल से रिहा होने के बाद सावरकर में एक परिवर्तन आ गया था। वह स्वंत्रता आंदोलन में सक्रिय नही थे और कुछ लोग तो उनको अंग्रेजों का साथ देने की बात भी कहते हैं। तो आइए इस पहलू पर बात करते है। १९२४ में जेल से रिहा होने के बाद सावरकर को नजरबंद कर दिया गया।

अंग्रजों को शक था उनकी पहुंच क्रांतिकारियों तक थी और वह पुनः सरकार के खिलाफ विद्रोह करा सकते थे।१९३७ तक वह नजरबंद रहे। पर लगातार क्रांतिकारियों के संपर्क में थे और उनका मार्गदर्शन करते रहे। और इस बात के ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं। १९३७ में जब कांग्रेस ने kसरकार बनाई तब सावरकर से प्रतिबंध हटाया गया। और इस वक्त ऐसा कोई बड़ा राष्ट्रीय आंदोलन नही चल रहा था। उस वक्त गांधी जी केवल गोलमेज सम्मेलन कर रहे थे।


१९४२ में गांधी जी ने भारत छोड़ों आंदोलन की शुरुवात किया।हालाकि जिसका विरोध उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष ने भी ये कहकर किया की ये बिना किसी पूर्व योजना के किया गया है।कांग्रेस के कई लोगों ने इस आंदोलन की योजना पे सवाल खड़े किए। हालाकि ३ महीने में गांधी जी ने इस आंदोलन को वापस ले लिया।


सावरकर और कांग्रेस

सावरकर कांग्रेस की कुछ नीतियों के विरोधी रहे। चाहे वो १८५७ की क्रांति को लेकर हो या गांधी जी के मुस्लिम तुष्टिकरण को लेकर। सावरकर ने देश की एकता का समर्थन किया। गांधी जी, सुभाष चंद्र बोस समेत कई लोगों ने उनको कांग्रेस से जुड़ने का आग्रह किया जिसको उन्होंने स्वीकार नही किया।

सावरकर और नेता जी

नेता जी पर सावरकर का गहरा प्रभाव था। २२ जून १९४० में नेता जी और सावरकर जी के बीच एक बैठक हुई और यह ३ घंटे से ज्यादा चली। इसमें सावरकर ने नेता जी को यह सुझाव दिया की वो देश से बाहर जाकर सेना का गठन करें और वही से देश की आजादी के लिए प्रयास करें ।
नेता जी अपने एक पत्र में लिखते है कि –


“जब राजनैतिक गुमराही और दूरदर्शिता की कमी के कारण कांग्रेस का हर नेता आज़ाद हिंद फौज के जवानों को भाड़े का सिपाही कह कर निंदित कर रहा है ऐसे में यह जानकर आपार खुशी हो रही है की वीर सावरकर निर्भयता पूर्वक भारतीय युवाओं को फौज में शामिल होने के लिए लगतार भेज रहे हैं।”
वाकए तो कई है पर उसपे मैं अलग से एक लेख लिखूंगा।

सावरकर और महात्मा गांधी 

गांधी जी सावरकर को भाई कहते थे। सावरकर के भाई के मृत्यु पे गांधी जी ने सावरकर को चिट्ठी लिखा और उस चिट्ठी में उन्होंने सावरकर को भाई कहकर ढांढस बंधाया था।


“भाई सावरकर, मैं यह आपके भाई की मृत्यु की खबर पढ़कर लिख रहा हूं। मैंने उसकी रिहाई के लिए थोड़ा बहुत किया था और जब से मैं उसमें दिलचस्पी ले रहा था। आपको सांत्वना देने की जरूरत कहां है? हम खुद मौत के जबड़े में हैं। मुझे उम्मीद है कि उनका परिवार ठीक है। आपका, एम.के. गांधी”


सावरकर और शहीद भगत सिंह

सावरकर के बारे में भगत सिंह ने कहा था “जो इस दुनिया से प्यार करता है वह बहादुर है, जिसे हम एक उग्र विद्रोही और कट्टर अराजकतावादी कहने में शर्म महसूस नहीं करते – यह वीर (बहादुर) सावरकर है”


इंदिरा गांधी ने सावरकर के लिए डाक टिकट जारी कराया था।उन्होंने सावरकर को रिमार्केबल सन ऑफ इंडिया कह कर संबोधित किया।”मुझे आपका ८ मई १९८० का पत्र मिला है। वीर सावरकर की ब्रिटिश सरकार की साहसी अवज्ञा का हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अपना महत्व है। मैं भारत के उल्लेखनीय सपूत की जन्मशती मनाने की योजना की सफलता की कामना करती हूं”


आज कुछ राजनैतिक कारणों से भले ही सावरकर के बारे में कुछ लोग गलत जानकारियां फैला रहे है। पर वीर सावरकर वीर ही रहेंगे और उनकी महान विरासत आने वाले पीढ़ियों को वीरता और आजादी का महत्व समझाती रहेगी।

Need to change the perspective about private job in India

When we start studying in childhood, we are told only one purpose of studying that if we study well, we will get a good government job. I am not saying bad government job here. Just want to talk about a mindset of the society which I have realized.

It would have been a good thing if everyone could get a government job after studying and writing. But this cannot happen. Day by day the number of government jobs is decreasing and the number of those preparing for government jobs is increasing by doubling and quadrupling.

Now it is obvious that all the people kept from getting government jobs. But today why people do not look at private jobs from the point of view of success. This is not the fault of the people. In our society, success is understood to mean only a government job. One has to work very hard to get a government job, so it is obvious that those who get government jobs will be called successful.

But this should not at all mean that those in private jobs should be considered unsuccessful. People who work in a private firm by doing engineering or diploma and many times earn better money than a government job, but the society calls them a failure.

Every time they get to hear this from their family members or relatives that let’s not get a government job, but this is also fine. Is our ultimate goal only government jobs.

Although it is not right to compare but I want to share with you what happened to me. In a private company, if someone is earning more than one lakh rupees in a month, but he is unsuccessful, but a government job of fifty thousand is considered successful in comparison to him.

90% of the people working in India are working in the private sector. So should we consider 90% of the people as failures? The only facility that is not there in a private job is job security. But I believe that if a company has millions of people in line for jobs, then there are thousands of companies for an employee to do their jobs.

If I talk only about the IT sector, then this sector is so big that everyone gets jobs in it. Rest depends on your talent and your dedication. Yes, there is one thing that there is no private job at all for people who like comfort.

Today we need to change our attitude. Just like cold means Coca Cola, studies mean government job, just we have to change this thinking. Because the person doing private job is also successful, he is also earning money. Paying taxes and living a good life.

Man chooses government so that he can lead a good life. Good food, house, car. You can accomplish all this very well with a good private job.

Reason why we need to choose private job

  1. There are lot of opportunities in private sector.
  2. One can get job in private sector in short span of time as compare to government job.
  3. One can earn good salary if he/she have talent and upgrade himself/herself with market standard.
  4. Many companies want to invest in India and want to utilize the talent.
  5. Currently India have highest percentage of youth as compare to other countries so all big companies want to hire young talented Indian for their requirements.
  6. Make In India program enabled many foreign counties to invest in India and hence many new opportunities will be created.

In this pandemic situation IT sector hiring reaches his peak.

https://www.financialexpress.com/industry/it-sector-jobs-at-all-time-high-hiring-of-skilled-professionals-increases-52-from-pre-covid-levels/2286465/

In last 5 year IT sector have created more than 8 lakh new jobs.

https://www.thehindubusinessline.com/news/national/it-sector-generated-873-lakh-jobs-in-last-5-years/article26600197.ece

Also please read our article on Tata airline.

https://www.writewingink.com/2021/10/10/tata-says-hello-to-air-india-effect-of-air-india-privatization-on-common-man-current-picture-of-indian-aviation-industry/

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Women and Society. It’s time society accept his failure on women’s security.

If anyone is the smartest and smartest in this world, then it is society. All the types of people that are there today are all due to the society like good people, bad people, murderers, criminals, officials, philanthropists, selfish, etc. But whenever any untoward incident happens, society frees itself from that crime by calling those criminals the enemy of society.

“Such people are not fit to live in the society”, such people cannot be part of the society.” By saying these sentences, the society cleverly separates itself from these. Any criminal would have been a part of this society before committing a crime. So why is society not responsible for producing such criminals?

We have to fix our responsibility. Any rapist lives in this society before committing his crime and society would have been telling him his share in the same way. But after committing the crime, the responsibility is put on the administration and the government. Till we do not take our responsibility, we and our society will continue to give birth to such criminals.

We should be ashamed of ourselves for every single incident. Nothing will happen just by burning candles. Otherwise, our sisters and daughters will keep burning every day and we will keep lighting candles. We have to change within ourselves. First of all, a criminal is someone’s son. We have to teach him to respect girls from childhood. We were told in childhood that cow is mother. Nature is the same. But we never talk about rape.

We do not tell our children that standing at the crossroads and scolding girls is wrong. We have been hearing since childhood that girls should not go out alone at night. Or girls should not do this.
In many places, people are still not happy when girls are born. The society, which burns daughters-in-law for dowry, is today worried about its sister daughters. A society that has not yet been able to see sons and daughters equally.

The society where daughters are killed before they are born. Society is still shy when it comes to periods and considers itself untouchable. Society considers itself to be male-dominated. The society that if the daughters are educated, then considers it as a favor done to them. Never ask the boys what you were doing outside. We don’t worry because he is a boy. What will happen to them? Well, nothing will happen to them but they can do wrong to anyone. When will society worry about this?

Governments will come and go. You and everyone can be supporters of any government or ideology, but we cannot justify this heinous crime against women. These governments are only for running the government. They do not have enough power to change the thinking of our society or society. And if anything can stop this crime, it is the thinking of society.

I do not understand from what mouth we talk about becoming a Vishwa guru. By becoming Vishwa guru, will we teach the world to rape? Even after so many years of independence, we could not create a society in which the women of our society can live without any fear and we talk about developed India and self.

We must have reached the height of the moon, but our thinking could not rise above how girls should dress. We set very high standards of development, but even today we are engaged in deciding the length of skirts of girls. Hey brother, let them live their lives, man. You are not a contractor. You can’t decide.

No government, leader, and no matter how strict the law is, it cannot completely eliminate rape, it can definitely reduce it. Completely ending rape can only end the thinking towards the girls of the society. Because even if a single rape happens, it is like soot on our face. Therefore, leave the law, government leaders, you will have to bring a change in yourself.

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