समान नागरिक संहिता : भारत सरकार पर भारतीय लोकतंत्र का एक उधार

आजादी के बाद नेहरू सरकार भारतीय समाज में कई आमूलचूल परिवर्तन लाना चाहती थी। इसके लिए कई सारे सामाजिक सुधारों को संविधान का रूप देना चाहती थी। इन्ही में से एक सुधार था हिंदू कोड बिल। ये बिल अपने आप में कई कानूनों को समेटे हुए था। और इसमें एक था हिन्दू विवाह अधिनियम। हिन्दू समाज में शादी को लेकर संविधान में कुछ नियम जोड़े गए। उस समय के परिदृश्य को देखते हुए शायद ये जरूरी कदम था। 

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पर एक सवाल तो उस समय यह भी खड़ा हुआ की ये सारे कानून सिर्फ एक वर्ग के लोगों के लिए ही क्यूं। क्या ये नियम समाज के हर वर्ग के लोगों के लिए नहीं होना चाहिए। क्या उस समय की नेहरू सरकार मुस्लिमों को इस कानून के अंतर्गत लाने में डर या हिचकिचा रही थी। क्या उनको लग रहा था की हिन्दू समाज परिवर्तन आसानी से स्वीकार कर लेता है।

ये सोच कर ही कितना हास्यास्पद लगता है की एक देश में दो वर्गों के लिए दो कानून। एक वर्ग के लिए कानून संविधान निर्धारित करे और एक वर्ग के लिए पर्सनल लॉ बोर्ड। 

खैर अभी बात विवाह कानूनों की चल रही है तो एक और उदाहरण आपके सामने रखते हैं। 1985 में न्यायालय द्वारा एक ऐतिहासिक फैसला आया जिसने भारत की राजनैतिक दिशा को बदल के रख दिया। 1978 में मध्यप्रदेश इंदौर की रहने वाली शाह बानो बेगम को उनके पति ने तलाक दे दिया। शाह बानो ने न्यायालय में अपने गुजारा भत्ता देने के लिए अर्जी लगाई। आज ये पढ़ कर अचरज हो रहा होगा की गुजारा भत्ता के लिए न्यायालय तक क्यों जाना पड़ा। पर इस्लाम में हर महीने गुजारा राशि देने का कोई प्रावधान नहीं है। विवाह के समय तय मेहर की रकम को ही गुजारा राशि माना जाता है। 

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न्यायालय ने शाह बानो के पति को हर महीने 500 रुपए देने का आदेश दिया।

सिर्फ मेहर की राशि चुकाने से पति का दायितव ख़तम नहीं होती।  पर इस फैसले मुसलिम धर्म गुरुओं और संस्थाओं  ने फैसले का विरोध किया। 

जरा सोचिये शाह बानो जो की ६२ साल की महिला और ५ बच्चो की माँ है उनको पति ने घर से निकाल दिया और गजरा भत्ता की मांग पर तलाक दे दिया।  ५ बच्चों के साथ शाह बानो अपना पालन पोषण करने के लिए दर दर भटकने को मजबूर थी।  लिहाजा उन्होंने न्यायालय का दरवाजा खटखटया।  उन्होने इन्साफ तो मिला पर उसकी अवधि बहुत ही कम थी। 

सोचिये स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी की सरकार के समय हिन्दू विवाह अधिनियम  की जगह सिर्फ विवाह अधिनियम कानून आता तो क्या शाह बानो के जैसी हजारों या शायद लाखों  महिलाओं के साथ ऐसा न हुआ होता।  उन्हें गुजारा भत्ता के लिए दर दर की ठोकरे ना खानी पड़ती।  पर बार अभी १९८६ राजीव गाँधी सरकार की हो रही है।  इंदिरा गाँधी जी के हत्या के बाद प्रधानमन्त्री बने श्री राजीव गाँधी की ये पहली अग्नि परीक्षा थी।  ये देखना था की क्या वो मुस्लिम समाज के विरोध को दरकिनार कर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के साथ खड़े रहेंगे।  क्या राजीव गाँधी १९५२ में महिलाओं का जो वर्ग न्याय से वंचित रह गया था उसको न्याय देंगे। 

पर ऐसा हुआ नहीं सरकार झुक गई।  शरीयत को संविधान से ऊपर मानने वाले कट्टरपन्थीओं की आवाज तले डाब गई।  वो राजीव गाँधी जो भारत के सबसे कम उम्र के युवा प्रधानमंत्री थे जिनसे नए भारत की उम्मीदें थी , जिहोने कंप्यूटर क्रान्ति और भ्रस्टाचार ख़तम करने की बात कही थी , समाज के हर वर्ग को साथ लेकर चलने की बात कही थी वो उम्मीदों को गहरा झटका लगा।  सरकार ने कानून लाकर न्यायलय के निर्णय को बदल दिया। 

शाह बानो फिर से असहाय हो गई। इस्लामिक कट्टरट्ता के आगे शाह बनो जैसी लाखों महिलाओं की आवाज दबा दी गई।  क्या आज के भारत में अलग कानूनों की कोई जगह है।  भारत विविधतता में एकता वाला राष्ट्र है।  पर ये एकता किस कीमत पर। क्या सच्चे मायने में एकता को बनाये रखने के लिए सामनां नागरिक संहिता की आवश्यकता नहीं है।  जिस राष्ट्र में विविध धर्मों और सम्प्रदायों के नागरिक रहते हो उस राष्ट्र में टकराव होना स्वाभवविक है।  पर इन टकरावों सुलझाने के लिए किसी ऐसे नियम नहीं होने चहिये जो सभी वर्गों से ऊपर हो।  और जिसका पालन हर वर्ग के लोग करे। 

आज के इस समाज में कट्ट्टरट्ता की कोई जगह नहीं है।  विकास की इस दौड़ में बने रहने के लिए अपने अंदर थोड़े से लचीलेपन की गुंजाईश रखनी चहिये क्यूंकि परिवर्तन विकसित समाज की बहुत बड़ी जरुरत है।  बदलते समय के साथ समाज में व्याप्त कुछ कुरीतियों को ख़तम करते रहना चाहिए।  मानवीय सिंद्धान्तो में बदलाव भी जरुरी हो जाता है।

हिन्दू धरम में व्याप्त कुरीतियों को समय समय पर ख़तम किया गया है।  फिर वो चाहे अंग्रेजो के द्वारा कानून हो या भारत सरकार द्वारा लाए गए सुधारों को।  सती प्रथा , बलि प्रथा , विधवा विवाह नियम या फिर चाहे पर्दा प्रथा।  हिन्दू समाज ने इन बदलाओं को स्वीकार किया।

पर जैसे किसी कार को सड़क पर सफलता पूर्वक दौड़ते रहने के लिए उसके चारों पहियों का स्वस्थ होना आवश्यक है वैसे समाज रुपी कार को दौड़ते रहने के लिए उसके सभी पहियों का स्वस्थ व सही स्थिति में होना अति आवशयक है।  अगर किसी एक पहिये को नया कर देने पे कार सफलता पूर्वक नहीं दौड़ेगी।

समान नागरिक सहिंता एक ऐसा जरिया जिसके द्वारा समाज के हर पहिये को स्वस्थ व नया रख सकते है जिससे समाज बिना किसी दुर्घटना के आगे बढ़ता रहे।  हम इक्कीसवीं सदी में बाबा आदम के जमाने के नियमों को साथ लेकर नहीं चल सकते।  उन्हें तो बदलना ही चाहिए।

और एक ऐसे नियम प्रणाली की जरुरत है जो आज के हिसाब से हो।  एक ऐसी प्रणाली जिसमे महिलाओं का सम्मान हो , जिसमे हर वर्ग का ध्यान हो।  हम आपसे में टकराहट को रोके और समान नागरिक संहिता को सफल बनाये। 

बाबा साहेब अंबेडकर और नेहरू जी समान नागरिक सहिंता के पक्ष में थे। पर वो धीरे धीरे इसकी तरफ अग्रसर होना चाहते थे। हिन्दू कोड बिल समान नागरिक सहिंता की तरफ पहला कदम था। वो शायद समाज को इसके फायदे दिखाना चाह रहे होंगे जिनके आधार पर अन्य वर्गों को भी इन कानूनों के लिए राजी कर सके। तो एक तरह से आने वाली सरकारों की ये नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है की जो सपना नेहरू जी और अंबेडकर जी ने देखा था उसको पूरा करें।

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One thought on “समान नागरिक संहिता : भारत सरकार पर भारतीय लोकतंत्र का एक उधार

  1. बिल्कुल सही कहा आपने। हमे महिलाओं के लिए, हर एक वर्ग के लिए समान कानून की मांग करनी चाइए और सरकार को इस बारे में सोचना चाइए ।
    It’s a very good article. 👏👏👏

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