वीर सावरकर और उनकी महान विरासत

विनायक दामोदर सावरकर “वीर सावरकर”, भारतीय इतिहास और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी एक ऐसी शक्सियत जिन्हे कुछ लोग नायक मानते है तो वही कुछ वर्ग ऐसा भी है जिन्हे वीर सावरकर से कुछ आपत्ति है। पर आप चाहे उनको माने या न माने पर उनका जो प्रभाव भारतीय इतिहास में है उसको तो सबको मानना ही पड़ेगा। 


इससे पहले की हम भारतीय इतिहास में उनके योगदान के बारे में बात करे सबसे पहले उनके बारे में थोड़ा जान लेते हैं।
१८८३ को नासिक के एक गांव में भगुर में जन्म हुआ महान क्रांतिकारी श्री वीर सावरकर का। एक सामान्य परिवार में जन्मे सावरकर बचपन से पढ़ने लिखने के साथ कविताएं लिखते थे।


१९०२ में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की और पुणे के फर्गुसन कॉलेज में बी ए में दाखिला लिया। वीर सावरकर ने क्रांतिकारी गतिविधियां उस समय से आरंभ किया जिस समय न तो महत्मा गांधी भारत में थे और न ही सुभाष चंद्र बोस की इतनी बात होती थी। 
१९०५ में उन्होंने बंगाल विभाजन के विरोध स्वरूप अपने ही कॉलेज में विदेशी कपड़ों की होली जलाई। जिसके बाद उन्हें निष्कासित कर दिया गया और उस समय में १० रुपए का जुर्माना लगाया गया। और कई पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे।


सावरकर एक महान समाज सुधारक थे। सावरकर बाबा साहेब और गांधी जी से पहले छुआ छूत के खिलाफ आंदोलन चलाया।उन्होंने हिंदू समाज को जिन ७ बंदियो ने घेरा हुआ है छुआछूत उनमें से एक है।


सावरकर और अंग्रेजी हुकूमत

सावरकर को अंग्रेज शासन अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता था।कारण भी साफ था। १८५७ की क्रांति के बाद अंग्रजों ने कांग्रेस की स्थापना इस उद्देश्य से किया की वो पुनः ऐसी कोई क्रांति को शुरू होने से पहले ही मिटा दे। उन्होंने कांग्रेस के बहाने भारतीयों के अंतरमन को टटोलना प्रारंभ किया। और अंग्रेजी हुकूमत और जनता के बीच सीधा संवाद के लिए कांग्रेस का इस्तेमाल किया।पर सावरकर अंग्रजों के इस मकसत से पूर्णतया अवगत थे।

उन्होंने १८५७ की क्रांति जिसको धीरे धीरे एक छुटपुट सैनिक विद्रोह बताया जाने लगा था उसको उन्होंने प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी। १९०७ में वीर सावरकर ने लंदन स्थित इंडिया हाउस में १८५७ की क्रांति के पचास वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में एक आयोजन किया। और इस मौके को भारतीय जन मानस तक पहुंचाया। उन्होंने १८५७ पे एक किताब भी लिखी। उन्होंने भारतीय जन मानस में फिर से देश प्रेम की भावना जगाई।


सावरकर और सेल्यूलर जेल

सावरकर को १९११ में अंडमान स्थित सेल्यूलर जेल भेज दिया गया। वह किसी नरक से कम नहीं थी। उस समय जब नेहरू जी और गांधी जी जैसे क्रांतिकारियों अंग्रेजों द्वारा जेल में विशेष सुविधाएं दी जाती थी। उनसे उनका मन पसंद खाना दिया जाता। बाहरी दुनिया से संपर्क के सारे साधन दिए जाते थे।तब सिर्फ सावरकर को उस नरक जैसी जेल में रखा गया। जाहिर सी बात है ब्रिटिश सरकार सावरकर को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानती थी। 


उस जेल में छोटे छोटे कमरों में कैदियों को रखा जाता था। पैरो में बेड़ियां पड़ी होती थी। तरह तरह की यातनाएं दी जाती थी।एक निश्चित समय में १३.५ किलो सरसो और नारियल से तेल निकालना पड़ता था। और अगर वो समय सीमा पूरी न हो तो कोड़ों से मारा जाता था। जेल में भेदभाव होता था। खाने के बर्तन साफ नहीं होते थे। आधा पेट खाना मिलता था और थोड़ा पानी। और ये रोज होता था। सावरकर ने ये सब लगभग १० साल तक सहा। पर उन्होंने हिम्मत नही हारी। दिनभर यातनाएं सहने के बाद शाम में वो जेल की दीवारों में पत्थरों से कविताएं लिखा करते थे।


सावरकर और दया अर्जी

सबसे पहले तो ये कोई दया की याचना नही थी। आज कुछ लोग इसको ऐसे वर्णित करते है जैसे सावरकर जी दया की भीख मांगी हो। समय समय पे अंग्रेजी सरकार जेलों में बंद कैदियों को मुक्त करने के लिए दया याचिका का प्रावधान करती थी। यह पूरी तरह से कानूनी प्रक्रिया होती थी। इस दया याचिका का एक निश्चित प्रारूप होता था।

आज कुछ लोगों को इसकी भाषा से समस्या है की उन्होंने तो दया की भीख मांगी थी। पर अगर आप किसी सरकार या कोर्ट से दया की याचिका करते है तो आपको वैसी ही भाषा का चुनाव करना होता है। आज भी हम कोर्ट में माई लॉर्ड या योर लॉर्डशिप जैसे शब्दों का चुनाव करते है। और आपको उस वक्त की मौजूदा सरकार को यह भरोसा दिलाना होता था की आप भविष्य में ऐसी गतिविधियों में सम्मलित नही होंगे।


सावरकर पहले व्यक्ति नही है जिन्होंने ऐसा किया। जब नेहरू जी को नाभा जेल में बंद किया गया तो उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने गवर्नर को दया याचिका लिखी की उनका पुत्र भविष्य में ऐसा काम नही करेगा और वह पुनः नाभा की सीमा में प्रवेश तक नही करेगा। 
सी पी आई पार्टी के संस्थापक श्रीपद अमृत डांगे भी उस से सेल्यूलर जेल में यातनाएं सह रहे थे। उन्होंने भी गवर्नर जनरल ऑफ इंडिया को दया याचिका लिखी और उसमे योर ओबिडिएंट सर्वेंट इन जैसे शब्दों का चुनाव किया। 


तो इसका मतलब यह नहीं जिन लोगो ने दया याचिका डाली वह सब अंग्रजों के गुलाम हो गए। वह सिर्फ एक जरिया था वहा से बाहर निकलने का। क्यूंकि जेल में बंद होकर अपना जीवन नष्ट करने से कहीं बेहतर है की जेल से बाहर आकर देश के लिए कुछ किया जाए। 


सावरकर को जेल में उनके साथी बड़ा बाबू कहते थे। क्योंकि वे लंदन से पढ़ के आए थे और काफी पढ़े लिखे और समझदार थे।उन्होंने केवल अपने लिए ही याचिका दायर नही की अपितु अपने साथ सब के लिए किया। वह उन लोगों की आवाज थे और उन लोगों को जेल से मुक्त करने के लिए कार्यरत थे।


एक याचिका में उन्होंने यह भी कहा है की आप मुझे न सही पर मेरे साथियों को मुक्त कर दीजिए मुझे उतनी ही खुशी होगी। और हर बार उनको और उनके भाई को रिहा नही किया जाता था।


रिहाई के बाद सावरकर

कई वामपंथी इतिहासकार ये कहते है की जेल से रिहा होने के बाद सावरकर में एक परिवर्तन आ गया था। वह स्वंत्रता आंदोलन में सक्रिय नही थे और कुछ लोग तो उनको अंग्रेजों का साथ देने की बात भी कहते हैं। तो आइए इस पहलू पर बात करते है। १९२४ में जेल से रिहा होने के बाद सावरकर को नजरबंद कर दिया गया।

अंग्रजों को शक था उनकी पहुंच क्रांतिकारियों तक थी और वह पुनः सरकार के खिलाफ विद्रोह करा सकते थे।१९३७ तक वह नजरबंद रहे। पर लगातार क्रांतिकारियों के संपर्क में थे और उनका मार्गदर्शन करते रहे। और इस बात के ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं। १९३७ में जब कांग्रेस ने kसरकार बनाई तब सावरकर से प्रतिबंध हटाया गया। और इस वक्त ऐसा कोई बड़ा राष्ट्रीय आंदोलन नही चल रहा था। उस वक्त गांधी जी केवल गोलमेज सम्मेलन कर रहे थे।


१९४२ में गांधी जी ने भारत छोड़ों आंदोलन की शुरुवात किया।हालाकि जिसका विरोध उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष ने भी ये कहकर किया की ये बिना किसी पूर्व योजना के किया गया है।कांग्रेस के कई लोगों ने इस आंदोलन की योजना पे सवाल खड़े किए। हालाकि ३ महीने में गांधी जी ने इस आंदोलन को वापस ले लिया।


सावरकर और कांग्रेस

सावरकर कांग्रेस की कुछ नीतियों के विरोधी रहे। चाहे वो १८५७ की क्रांति को लेकर हो या गांधी जी के मुस्लिम तुष्टिकरण को लेकर। सावरकर ने देश की एकता का समर्थन किया। गांधी जी, सुभाष चंद्र बोस समेत कई लोगों ने उनको कांग्रेस से जुड़ने का आग्रह किया जिसको उन्होंने स्वीकार नही किया।

सावरकर और नेता जी

नेता जी पर सावरकर का गहरा प्रभाव था। २२ जून १९४० में नेता जी और सावरकर जी के बीच एक बैठक हुई और यह ३ घंटे से ज्यादा चली। इसमें सावरकर ने नेता जी को यह सुझाव दिया की वो देश से बाहर जाकर सेना का गठन करें और वही से देश की आजादी के लिए प्रयास करें ।
नेता जी अपने एक पत्र में लिखते है कि –


“जब राजनैतिक गुमराही और दूरदर्शिता की कमी के कारण कांग्रेस का हर नेता आज़ाद हिंद फौज के जवानों को भाड़े का सिपाही कह कर निंदित कर रहा है ऐसे में यह जानकर आपार खुशी हो रही है की वीर सावरकर निर्भयता पूर्वक भारतीय युवाओं को फौज में शामिल होने के लिए लगतार भेज रहे हैं।”
वाकए तो कई है पर उसपे मैं अलग से एक लेख लिखूंगा।

सावरकर और महात्मा गांधी 

गांधी जी सावरकर को भाई कहते थे। सावरकर के भाई के मृत्यु पे गांधी जी ने सावरकर को चिट्ठी लिखा और उस चिट्ठी में उन्होंने सावरकर को भाई कहकर ढांढस बंधाया था।


“भाई सावरकर, मैं यह आपके भाई की मृत्यु की खबर पढ़कर लिख रहा हूं। मैंने उसकी रिहाई के लिए थोड़ा बहुत किया था और जब से मैं उसमें दिलचस्पी ले रहा था। आपको सांत्वना देने की जरूरत कहां है? हम खुद मौत के जबड़े में हैं। मुझे उम्मीद है कि उनका परिवार ठीक है। आपका, एम.के. गांधी”


सावरकर और शहीद भगत सिंह

सावरकर के बारे में भगत सिंह ने कहा था “जो इस दुनिया से प्यार करता है वह बहादुर है, जिसे हम एक उग्र विद्रोही और कट्टर अराजकतावादी कहने में शर्म महसूस नहीं करते – यह वीर (बहादुर) सावरकर है”


इंदिरा गांधी ने सावरकर के लिए डाक टिकट जारी कराया था।उन्होंने सावरकर को रिमार्केबल सन ऑफ इंडिया कह कर संबोधित किया।”मुझे आपका ८ मई १९८० का पत्र मिला है। वीर सावरकर की ब्रिटिश सरकार की साहसी अवज्ञा का हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अपना महत्व है। मैं भारत के उल्लेखनीय सपूत की जन्मशती मनाने की योजना की सफलता की कामना करती हूं”


आज कुछ राजनैतिक कारणों से भले ही सावरकर के बारे में कुछ लोग गलत जानकारियां फैला रहे है। पर वीर सावरकर वीर ही रहेंगे और उनकी महान विरासत आने वाले पीढ़ियों को वीरता और आजादी का महत्व समझाती रहेगी।

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