२०१४ से २०२४ : लोकतंत्र की असली मजबूती के १० वर्ष

आज कल कुछ लोग ये बोलते हुए पाए जाते है की आज लोकतंत्र खतरे में है।  उनके लिए मैं कुछ कहना चाहता हूँ।  मुझे क्यों ऐसा लगता है की २०१४ के बाद लोकतंत्र को और मजबूत किया गया है।  मैं एक आम नागरिक की नजर से इस बात की विवेचना करना चाहता हूँ। 

सबसे पहले आपको मैं पुराने दिनों में ले जाना चाहता हूँ।  मैं रायबरेली का रहने वाला हूँ।  वही रायबरेली जिसको तो कुछ लोगो के हिसाब से लंदन होना चाहिए था।  उसी रायबरेली में पले बढे एक बचपन से शुरुआत करना चाहता हूँ। किताबें विद्यार्थी जीवन की सबसे बड़ी मित्र होती हैं। और उन्ही मित्रो के जरिये उस समय एक विद्यार्थी  प्रजातंत्र की परिभाषा याद कर रहा था। 

“प्रजातंत्र जनता के लिए जनता के द्वारा शासन है “। 

इसी प्रजातंत्र के परिवार से एक विद्यार्थी घर से ६ ७ किलोमीटर दूर विद्यालय से कंकड़ों वाली सड़क से वापस आते समय दिमाग में ये सोच रहा होता की ये जनता का कैसा साशन है की उसको रोज इतनी मेहनत करवाती है। क्या वह जनता नहीं है।  खैर इन सवालों के जवाब न तो वो किताबे दे पाती और न ही वो प्रजातंत्र की परिभाषा।  उस समय तो प्रजातंत्र का मतलब उस बच्चे को बस किताब में लिखे उस छोटा सा गद्य खंड ही था।

बचपन अब बड़ा होता है और अब उसने जनता को या तो लम्बी कतारों में पाया या फिर सरकारी कार्यलयों के परिधि के बाहर चक्कर लगाते हुए।बैंक में छोटे से छोटे  काम के लिए कतार।  किसानो को खाद के लिए कतार।  ट्रैन में बैठने के लिए कतार। अस्पतालों के लिए कतार।  गैस सिलिंडर के लिए तो इतनी बड़ी बड़ी कतारें लगती थी की कुछ  लोग तो पहले से ही हिम्मत हार जाते थे।

एक आम इंसान को सरकारी कार्यलयों में जाने का मन नहीं करता था।  किसी भी सरकारी अधिकारी से बात करते वक़्त वो जनता हाँथ बांधे खड़ी होती थी।  अधिकारी ऐसे बाते सुनता था जैसे उसके सामने खड़ी वो जनता है ही नहीं या  जनता को तुच्छ समझ कर वो उनकी बाते सुनते थे।  बेचारी हाँथ जोड़े खड़ी जनता उसको ये पता ही नहीं था की किताबों में तो प्रजातंत्र कुछः और ही बताया गया है।

२०१४ में श्री नरेंद्र मोदी जी के आने के बाद मैंने प्रजातंत्र में जो बदलाव देखे है उससे मेरी प्रजातंत्र को लेकर धारणा बदल गयी।

अब हम प्रजातंत्र को जनता के लिए साशन बनाने की दिशा में बढ़ चुके है।  मैं आपसे कुछ उदाहरण ही साझा करूँगा।

बात २०१३-१४ की है मैं पहली  बार मैं गरीब रथ में बैठा।  मैं AC ट्रैन में पहली बार बैठा था तो मुझे इस बात का पता नहीं था की कम्बल लेने के लिए आपको पैसे देने पड़ेंगे।  सब लोग डिब्बे के बाहरी हिस्से में जाकर कम्बल लेकर आ रहे थे तो मैं भी चला गया।  कम्बल बाटने वाले कर्मचारी ने पहले तो सुनाया मुझे की घर से क्यों नहीं लाये फिर बोला की अब कम्बल ख़तम हो गए।  खैर कुछ पैसे लेने के बाद उसने कम्बल दे दिया। 

अब हम सीधा २०२२ में आते हैं।  मैं और मेरी पत्नी सहारनपुर जाने के लिए रायबरेली से रिजर्वेशन करवाया।  अब हम लोगो को बछरावां स्टेशन नजदीक पड़ता तो ये तय किया की रायबरेली के एक स्टेशन आगे से ट्रैन पकड़ लेंगे।  बछरावां  स्टेशन में वातानुकूलित डिब्बों के सारे गेट बंद थे।  क्यूंकि शायद वह से कोई रिजर्वेशन न रहा हो।  हम लोग स्लीपर वाले डिब्बे में चढ़ गए। ट्रैन के टॉयलेट के पास खड़े हम दोनों। समझ नहीं आ रहा था की क्या करें।  एक ट्वीट किया मैंने भारतीय रेलवे और रेल मंत्री को टैग करते हुए।   आप यकीन मानिये २ मिनट के भीतर ही ट्रैन के टीटी साहब हम लोगों के सामने आये।  और हमारी सीट तक छोड़ कर आये।  ३ बार रेलवे की तरफ से कॉल आया की आपकी समस्या का निर्धारण हुआ की नहीं।  आप यकीन मानिये उस समय मेरा विस्वास सरकार पर और सरकारी तंत्र पर बढ़ गया या यूँ कह ले की जनता के लिए शासन होते हुए मैं असलियत में देख रहा था।  मेरे बस ये बोलने पे की सीट पर रखे हुए चद्दर  गंदे लग रहे बिना किसी बहस के नया पैकेट आ जाता है तो ये जनता के लिए साशन है।  शायद लोकतंत्र मजबूत हुआ है पहले की अपेछा। 

दूसरा उदाहरण पासपोर्ट सेवा।  २०१४ से पहले की बात करें तो असंभव सा लगता थ।  मेरे जान पहचान के मित्र है उनको दफ्तर की तरफ से विदेश जाना था। बड़ा मौका था पर पासपोर्ट नहीं था।  और हम लोग तो पहले वाली व्यवस्था ही समझ रहे थे  की अब तो महीनो  लगेंगे। पर फिर से एक ट्वीट आदरणीय सुषमा स्वराज जी और विदेश मंत्रालय।  एक हफ्ते के अंदर पासपोर्ट आ गया।  क्या ये जनता के लिए शासन नहीं है। क्या इसे लोकतंत्र को मजबूत करना नहीं कहते।

जनता को ये विस्वास होना की उसके एक ट्वीट से पूरा मंत्रालय उसके काम में लग जाता है तो इसे आप लोकतंत्र की मजबूती कहेंगे न की खतरा।  विदेश में कही कोई फस जाता था तो बस एक ट्वीट और सरकार सुरक्षित वापस ले आती है क्या ये लोकतंत्र की मजबूती नहीं है।

मीलों दूर विदेश में फसे भारतीय को अगर ये विस्वास हो की भारत की सरकार उसके साथ खड़ी है तो ये लोकतंत्र को मजबूत बनाती है।

अगला उदहारण  गैस सिलिंडर।  मुझे याद है की गैस सिलिंडर लाने के लिए गैस स्टेशन पे लम्बी लाइन।  २ ३ लग जाते थे कभी कभी।  एक इंसान १० १५ किलोमीटर साइकिल चलकर सिलिंडर लेने जाता है और फिर लम्बी कतार में खड़ा होकर वापस आ जाता है की गैस ख़तम हो गयी।  गरीब इंसान सरकारी शरारत का शिकार बन जाता था।  अब जरा अभी का हाल देखिये आपको मात्र मोबाइल पे मिस्ड कॉल देना है गैस आपके घर में।  अब लम्बी कतार नहीं लगती।  लोकतंत्र को धुप में लम्बी कतारों में खड़ा होकर सुखना नहीं पड़ता।  जब मात्र एक मिस्ड कॉल पे गैस आप के घर पहुंच जाती हो तो इसे आप लोक तंत्र को मजबूत होना ही कहेंगे।

मनरेगा में अपनी की हुई मजदूरी के पैसे पाने के लिए पहले गांव के गरीबों को ग्राम प्रधानों के घर के चक्कर लगाने पड़ते थे। और वह भी उसमे से कुछ हिस्सा ग्राम प्रधान रखते थे। आज अगर किसान सम्मान निधि सीधे किसानो के खाते में जाती है। सब्सिडी सीधे उपभोक्ता के खाते में जाती है। आयुष्मान भारत इतनी बड़ी स्वास्थ योजना। ये सारे कदम लोकतंत्र को मजबूत नहीं करते तो क्या करते है। क्या लोकतंत्र तब मजबूत था जब किसान खाद और बीज के पैसो के लिए दर दर भटकते थे। आज अगर उनको किसान सम्मान निधि मिलती है तो की ये लोकतंत्र की मजबूती नहीं है।

मुझे याद है मैं एक बार SBI की एक साखा में गया था यही कोई २०१० -११ में।  केवल ATM कार्ड का आवेदन के लिए मुझे ३ ४ घंटे लगे।  मन उठने लगता था सरकारी तंत्र से।  फिर अभी २०२४ में मैं फिर से हिम्मत करके SBI  की उसी शाखा में गया।। क्यूंकि २०१०-११ के बाद मैं वहा गया ही नहीं था।  मैंने न तो इस बार लम्बी कतारें देखि और न बैंक कर्मचारियों की ग्राहकों के प्रति उदासीनता।  सम्मान से बात करना।  जल्दी जल्दी काम करना। 

इस सरकार ने डिजिटल को ज्यादा बढ़ावा दिया।  न सिर्फ बढ़ावा अपितु उसके के लिए आवश्यक तंत्र भी विकसित किया जिससे आम जनता को बहुत ज्यादा सहूलियत मिली।  मुझे याद नहीं की मैं कब एटीएम की लाइन में लगा हूँ।  सब्जी वाले के तराजू के पीछे हिस्से में चिपक QR कोड इस बात का सूचक है की लोकतंत्र मजबूत हो रहा है।  सरकारी योजनाओं के नाम अब गांव में सिर्फ दीवालों में नहीं लिखे जाते अपितु उनको असली जामा पहना कर समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाया जाता है।

ऑनलाइन बैंकिंग को बढ़ावा , और बहुत सारी सरकारी प्रक्रिया को ऑनलाइन कर देना इससे आम जनता को मिलने वाली सहूलियत क्या लोकतंत्र को मजबूत नहीं बनती। घर बैठे लाखों रुपये का लेन दे। सरकार को डिजिटल को बढ़ावा इसपे अलग से लिख सकते है।

पहले ट्रेनों को क्या जान बूझ कर गन्दा रखा जाता था।  जो बदलाव मैंने भारतीय रेल में देखा वह अकल्पनीय है। 

सरकारी अधिकारी से बात करते हुए अब विस्वास रहता है।  अधिकारयों के मन में भी ये भय तो रहता है की अगर किसी ने ट्वीट कर दिया या फिर वीडियो बना के वायरल कर दिया तो उसे जवाब देना पड़ेगा।  मैंने अनगिनत स्ट्रीट लाइटस को ऐसे ठीक होते देखा है।  फोटो खींच कर ट्वीट कर  दिया और अगले दिन कर्मचारी मैदान में दीखते थे।  इसे आप एक क्रान्ति कह सकते है।  लोकतंत्र की क्रान्ति। 

अब जनता की आवाज को आप दबा नहीं सकते।  मौजूदा सरकार ने बहुत सारे प्लेटफार्म दिए है अपनी आवाज सीधा सरकार तक पहुचनाने को।इससे लोकतंत्र की मजबूती बढ़ती है।  वो जनता जो पिछली सरकारों में अपनी आवाज में बस प्रार्थना ही कर पाते थे आज वह मुखर होकर अपनी आवाज रख रही है।  हाँ अब अगर इसको आप कहेंगे की काम करना पड़ रहा है तो जनता के काम तो आपको करने पड़ेंगे। 

आज प्रधानमन्त्री किसी के ट्वीट का जवाब देते है या किसी को चिट्ठी लिखते है तो ये अनुभव होता है की ये सरकार हमारे लिए है

ऐसे बहुत से उदाहरण मैं गिनवा सकता हु।  बदलाव तो हुआ है इस देश में पर वो संविधान बदलने को नहीं अपितु  उसको और मजबूत करने के लिए। 

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